जब मुंबई दंगे का गवाह युवक पत्रकार से पूछा

*जब मुंबई दंगे का गवाह युवक पत्रकार से पूछा, "मैं सही से नहीं सो पाता, क्या बालासाहेब सो लेते हैं?"*
Updated: Nov 07 2019 04:41 PM | 


महाराष्ट्र में शिवसेना का बतौर पार्टी उत्थान काफी उतार-चढ़ाव और विवादों से होकर गुजरा है। शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे पर दंगों में भूमिका से लेकर क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा फैलाने तक के आरोप लगे। हालांकि, पार्टी ने 90 के दशक में आखिरकार वह मुकाम हासिल कर लिया और बीजेपी के साथ साझा सरकार में उसने अपना मुख्यमंत्री भी पहली बार बनवाने में कामयाब रही। शिवसेना आज महाराष्ट्र में कद्दावर पार्टी है। लेकिन, इस उत्थान में कई हिलाने वाली कहानियां भी शामिल हैं।


वरिष्ठ लेखिका सुजाता आनंदन ने अपनी किताब 'सम्राट' में बाल ठाकरे और शिवसेना के बढ़ते प्रभाव और उससे जुड़े किरदारों पर प्रकाश डाला है। उसी किताब का एक छोटा हिस्सा आपके सामने पेश है। जिसमें बताया गया है कि कैसे जब शिवसेना सत्ता हासिल करती है, तब दंगे का पाप अपने सिर लेने वाला एक कार्यकर्ता खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगता है---



"1990 के मध्य में शिवसेना-बीजेपी सरकार गठन के ठीक बाद मेरी मुलाकात मनोज सुर्वे (बदलाहुआ नाम) से हुई, जो 1992-93 में दंगों में शामिल होने के बदले अब पुरस्कार हासिल करने की तलाश में मंत्रालयों के चक्कर लगा रहा था। दंगे के दौरान वह हिंसक भीड़ का हिस्सा था, जिसने एक बुजुर्ग मुसलमान व्यक्ति को जिंदा जलाकर हत्या कर दी।


सुर्वे जोगेश्वरी के करीबी उपनगर गोरेगांव से था, जहां राधाबाई चॉल में 1993 के दौरान दंगे के दूसरे फेज में सबसे भायवह हत्याएं हुई थीं। वह (सुर्वे) एक ऐसे परिवार से था, जो बाल ठाकरे की पूजा करके बड़ा हुआ था। सेना प्रमुख ( शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे) के कहे प्रत्येक शब्द उसके परिवार के लिए किसी उपदेश से कम नहीं थे। उनकी एक इच्छा आदेश जैसी थी।


उसके घर में सामना अखबार प्रमुख रूप से पढ़ा जाता था। हालांकि, उनके ठाकरे से मिलने का कभी सौभाग्य हासिल नहीं हुआ था। जब वे हर सुबह अखबार पढ़ते थे और ठाकरे के भड़काऊ आर्टिकल से मुतासिर होकर मानने लगे थे कि शहर के मुसलमान हद से ज्यादा अहंकारी हो गए हैं और उन्हें उनकी भाषा में सबक सिखाया जाना चाहिए।


जब सुर्वे छोटा था तब उसकी मां उसे प्रत्येक सुबह गली में स्थित एक बेकरी की दुकान से पाव और अंडे खरीदने भेजती थी। कई मर्तबा शाम को ऐसा हुआ, जब परिवार के पाश ज्यादा ऑर्डर होते थे, तब सुर्वे एक शख्स को जिसे वह चाचा कहता था, वह अपनी साइकिल पर सवार होकर उसके दरवाजे तक बन और बिस्कुट देने आते थे। (वक्त बीतने के बाद) सुर्वे बाद में मोहल्ले के दंगाई युवाओं के साथ जुड़ गया।


(इस दौरान) चाचा, जो सुर्वे के जीवन में एक स्थायी तौर से जुड़े थे, उन्होंने अपने नियमित ग्राहकों के बीच इतना सुरक्षित महसूस किया कि दंगों के दौरान भी घरों तक (दूध, ब्रेड आदि) की आपूर्ति देने का फैसला किया। जब चाचा साइकिल पर ब्रेड और अंडे देने उनके घरों तक आए तब उन्होंने (दंगाइयों) ने चाचा को धक्का मारकर साइकिल से गिरा दिया और उन्हें जिंदा आग के हवाले कर दिया। इस भीड़ के पास सुर्वे भी मौजूद था, लेकिन उसने उस बूढ़े आदमी को बचाने की कोई खास कोशिश नहीं की, जिसने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं था, बल्कि सालों से लोगों के लिए अच्छा ही किया था।


पांच साल बाद भी सुर्वे अभी इस तथ्य को समझने के हालात में नहीं था कि उसके सामने कैसे एक आदमी को जिंदा जला दिया गया। उसने बताया कि इस हादसे के बाद से वह ठीक से सो नहीं पाया था। लेकिन जब शिवसेना तीन साल बाद 1995 में भाजपा के साथ गठबंधन में सत्ता में आई, तो सुर्वे के दिल में अन्य लड़कों के साथ उम्मीद जगी। उसका मानना​था कि उन्होंने ही मुसलमानों को डराकर कांग्रेस को वोट करने से रोका था और शिवसेना को सत्ता की दहलीज तक पहुंचाया है।


हालांकि, सुर्वे और उनके दोस्त हफ्तों तक मंत्रालय के चक्कर लगाते रहे, लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के दफ्तर की एक झलक तक नसीब नहीं हुई। जब कभी भी वे मुख्यमंत्री से संपर्क करने की कोशिश करते, तो बाल ठाकरे के पत्र के लिए मातोश्री भेज दिया जाता। वह कहते, "मैं किसी भी सिफारिश पर काम नहीं करूंगा, जब तक कि मेरे नेता से उसे पारित नहीं करा लिया जाता।"


मातोश्री, हालांकि, लगभग एक किले की तरह था और यहां तक कि मंत्रालय की तुलना में काफी ज्यादा पहुंच से बाहर था। वहां किसी ने भी सुर्वे या उसके दोस्तों को नहीं पहचाना; वे एक सिफारिश के लिए स्थानीय प्रधान या शाखा प्रमुख को भेजे गए थे, लेकिन स्थानीय नेता न तो उन्हें जानते थे और न ही उन लड़कों में से किसी के लिए समय था, जिन्होंने सोचा था कि उन्होंने ठाकरे के निर्देशों का पालन करके शिवसेना की किस्मत में एक बड़ा योगदान दिया है।


सुर्वे ने जब मातोश्री के बाहर नेताओं के इंटरव्यू और बातचीत देखे तो उसने मुझे अपनी कहानी बताई। उसने कहा, "मैडम, आप बालासाहेब तक आसानी से पहुंच जाती हैं। अगली बार जब मातोश्री आप जाएंगी तो क्या मेरा एक काम करेगीं?" मैंने पूछा, "मैं तुम्हारे लिए भला क्या कर सकती हूं"। उसने मुझसे कहा, "अगली बार आप मिलना तो आप मेरे लिए पूछेंगी कि क्या एक निर्दोष पाव वाले को मारना सही था? पाव वाले चाचा ने मेरे और मेरे परिवार को पाव देने के अलावा और किया ही क्या था? वह दंगों के दौरान भी हमें आसानी से ये सब मुहैया कराने के लिए कोशिश कर रहा था। क्या उसे सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह मुसलमान था? मैं रात को ठीक ढंग से सो नहीं पाता हूं। क्या बालासाहेब सो लेते हैं?"


मैंने सुर्वे से कहा, "तुम मेरे साथ अगली बार आना। मुझे अगले इंटरव्यू के लिए समय दिया गया है। तुम खुद ही पूछ लेना।" सुर्वे प्रसन्न नहीं था। जहां तक मैं जानती हूं, वह ठाकरे से कभी भी नहीं मिला और मंत्रालयों के चक्कर लगाने छोड़ दिए। कई सालों तक मेरा उसके साथ कोई संपर्क नहीं रहा। हालांकि, उसने मुझसे कहा था कि वह अपनी आत्मशुद्धि और पश्चाताप करेगा।"


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